मै चुप हूँ —- काजल घोष

हिन्दी कविता
मै चुप हूँ
काजल घोष
13/5/2021

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मैं चुप हूँ
मैने कभी कुछ नहीं कहा
कयोंकि मृत मनुष्य को कुछ कहने का
अधिकार नहीं होता

मैं चुप हूँ
क्योंकि मृत मनुष्य की आँखे खुली हो या बन्द
दोनों ही एक दूसरे के परिपूरक हैं
उनकी दृष्टि शक्ति नहीं होती

मैं चुप हूँ क्योंकि मृत व्यक्ति की
श्रवणशक्ति नहीं होती
वो सुने या ना सुने दुनिया को क्या–

जितने दिन मैं जीवित थी
तब भी मैने किसी के विरुद्ध
कुछ नहीं कहा
कुछ नहीं सुना

मेरे मरने का कोई कारण नहीं था
मैं खुश थी जीवन से संतुष्ट थी
फिर भी मेरी मौत आ
सामने खड़ी हुई
चल तेरा समय समाप्त हुया
जब मैं जी रही थी तब भी
किसी को एहसास नही हुया
कि मैं जीवित हूँ
ऐसी जिन्दगी को रखकर भी मै क्या करती

किसी ने कहा था जिस दिन
तुझे समझ में आयेगा कि तू जिन्दा है
तेरे जीवन का वही आखिरी दिन होगा
मैं उसे बेबाक देख रही थी
सब कुछ अस्पष्ट था मेरे लिये
फिर धीरे-धीरे समझ में आया कि सही
मैं कब जिन्दा थी मेरी आँखों में नूर कभी नहीं था
मेरी होठों में कभी मुस्कुराहट नहीं थी
और मेरे कान—वो तो,,??

जब मृत्यु दूतों को देखा
मैने चिल्लाई — मैं जीना चाहती हूँ
चुप–
उन्होने मेरी जिह्वा को काट देना चाहा
आखों में आँसू आ गयै
उन्होंने मेरी आँखों में गरम शलाका
नहीं —-
कानों को खींचने लगे
मैने प्रतिवाद करना चाहा
उन्होंने एक ना मानी—
क्या करेगी जी कर–
पहले जीवन का मतलब समझ
असली जिन्दगानी जीना सीख
अपना अस्तित्व पहचान

अचानक क्या हुया
मेरा मेरूदन्ड सीधा खड़ा होने लगा
कांपने लगा सारा ब्रह्माण्ड
सौर जगत चाँद तारे समस्त
ग्रह उपग्रहों में
हलचल मची
मुझे समझाने लगे जीवन के माइने

मृत्यु दूत धीरे धीरे धीरे पीछे हट रहे थे
मैं अचेतन घास के मखमली
कार्पेट पर लेटी थी
पर मेरी चेतना वृत्त जाग रही थी
कुछ स्वप्न फूल मेरे चारों ओर
नृत्य करने लगे थे
मैं जीना सीख रही थी
मैं सही अर्थ में जाग रही थी

अचानक जोर की बारिश आकर मुझे नहाने लगी
मैं पवित्र हो रही थी मेरी दृष्टि में उज्वलता–
नूतन सूर्य की किरणें मुझे सहला रही थी
मैं जीना सीख रही थी
मैं धीरे धीरे जीना सीख रही थी

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काजल
कविता गृह
कलकत्ता

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